झारखंड में नशे की खेती का घुलता जहर

अक्टूबर वह महीना होता है, जब अफीम की खेती की शुरूआत होती है और इसी दौरान खेती के लिए खेत मालिकों से लेकर खेती का जिम्मा लेनेवाले तक को राशि की पहली किस्त दी जाती है। फसल तैयार होने के दौरान दूसरी और फसल पूरी तरह तैयार होने पर राशि की तीसरी किस्त का भुगतान होता है। अफीम की खेती से झारखंड के समाज में घुलते जहर और करोबार के अवैध धंधे को रोकने के लिए केन्द्र से लेकर राज्य सरकार तक हरकत में है। लेकिन वक्त पर नहीं जागने की वजह से अफीम की खेती साल दर साल बढ़ती गयी और करोबार अरबां रुपये तक जा पहुंचा है। झारखंड की मुख्य सचिव राजबाला वर्मा कहती हैं ‚ अफीम की खेती के खिलाफ केन्द्र सरकार और राज्य सरकार की नीति जीरो टॉलरेंस की है। सरकार इसके खिलाफ निर्णायक अभियान चला रही है। इसी मुद्दे पर लहरन्यूज डाट कॉम के लिए हिमांशु शेखर की खास रपट –

झारखंड के चतरा जिले में अफीम की खेती को तबाह-बर्बाद करतीं महिलाएं

रांची : झारखंड में अफीम की खेती एक खतरनाक शक्ल अख्तियार कर चुकी है। यूं तो नशे के लिए बदनाम दूसरे राज्य है, लेकिन नशे की खेती झारखंड, बंगाल, बिहार व बांग्लादेश की सीमाओं पर लहलहा रही है। इसे लोग अब सीधे-सीधे नशे के साथ आतंक की फसल कहकर भी पुकारते हैं। झारखंड में तो हालात ऐसे बन गये हैं, जहां महिलाओं को अफीम की खेती के खिलाफ सामने आना पड़ रहा है। झारखंड का चतरा जिला अफीम की खेती का अड्डा गया है। महिलाएं यहां इसके खिलाफ आवाज बुलंद कर रही हैं, खेतों में पहुंच कर वे अफीम की खेती को तबाह-बर्बाद कर रही हैं। उन्हे जनसमर्थन भी मिल रहा है। हालांकि पुलिस टीम भी इन खेतों तक पहुंच कर अपनी कार्रवाई को अंजाम दे रही है, लेकिन उसे नाकाफी ही कहा जा सकता है। अफीम की खेती में शामिल लोगों को चेतावनी भी दी जा रही है और राज्य के अलग-अलग हिस्सों से उनकी गिरफ्तारी भी हो रही है। बावजूद अफीम की खेती को पनाह देने वालों की जडें़ इतनी गहरी और मजबूत हो चुकी हैं कि अफीम की खेती के खिलाफ पुलिस की कार्रवाई बौनी सी दिखती है। पुलिस पर भी अफीम की खेती में मिलीभगत का आरोप ग्रामीणों की ओर से लगता रहा है। कहा जाता है कि अफीम की खेती शुरू होते ही उसे पुलिस नष्ट क्यों नहीं करती है? अफीम की खेती को बढ़ावा देने में नक्सलियों और नशे के करोबार से जुड़े राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय स्तर के माफिया का दखल होता है। उन्हीं के इशारे पर इसकी खेती सुनसान, नदी किनारे, जंगल और अन्य मुफीद जगहों पर होती है, ताकि पुलिस प्रशासन को इसकी खबर-भनक न लग सके।

अफीम के खेत में पुलिस की धमक

झारखंड की राजधानी रांची से सटे ग्रामीण इलाके और आसपास के जिले में भी अफीम की खेती की धमक सुनी जा सकती है। खासतौर से उन इलाकों में जहां नक्सिलयों का प्रभाव माना जाता है। हालांकि झारखंड की मुख्य सचिव राजबाला वर्मा कहती हैं‚  अफीम की खेती के खिलाफ केन्द्र सरकार और राज्य सरकार की नीति जीरो टॉलरेंस की है। अब निर्णायक अभियान चला कर इसकी खेती को समाप्त किया जाएगा। पुलिस महानिदेशक डीके पांडेय वर्ष 2017 तक झारखंड से नक्सलियों के खात्मे की बात कह रहे है। लेकिन इस बात का दावा करने से सभी गुरेज कर रहे हैं कि झारखंड से अफीम की खेती का सफाया कब होगा। पुलिस महानिदेशक ने सभी लोगों से अपील की है कि जहां कहीं भी इसकी खेती होती हो उसके बारे में सरकार को सूचनाएं दें। बतातें चलें कि झारखंड में खासतौर से चतरा, लातेहार, खूंटी, पलामू, चाईबासा, रांची, हजारीबाग, गिरिडीह, पाकुड़, लोहरदगा, गुमला व जामताड़ा के दूरदराज के ग्रामीण इलाके अफीम की खेती के लिए कुख्यात हैं।
ठंड से अफीम की खेती का रिश्ता
मौसम में ठंडक के दस्तक देते ही अफीम की खेती से जुड़े लोगों के बीच हलचल शुरू हो जाती है। अक्टूबर वह महीना होता है जब अफीम की खेती की शुरूआत होती है और इसी दौरान खेती के लिए खेत मालिकों से लेकर खेती का जिम्मा लेनेवालों तक को राशि की पहली किस्त दी जाती है। फसल तैयार होने के दौरान दूसरी और फसल पूरी तरह तैयार होने पर राशि की तीसरी किस्त दी जाती है। तीन महीने में इन पौधों में फल-फूल निकल आते हैं। उन फलों में चीरा लगाया जाता है। फिर उससे निकले गाढ़े रस को एकत्र कर उसे अफीम की शक्ल दी जाती है और फिर इसकी तस्करी होती है। जनवरी-फरवरी महीने तक इसकी फसल पूरी तरह से तैयार हो जाती है। जिन राज्यों में भी इसकी खेती होती है, उन राज्यों को केन्द्र की ओर से भी इस पर लगाम लगाने के लिए निर्देश दिये जाते रहे हैं।
अफीम की खेती के अर्थशास्त्र को समझिये!
अफीम की खेती एक ऐसा गैरकानूनी कारोबार और अपराध है, जहां कम लागत में और कम समय में अधिक और मोटी कमाई होती है। हजारों एकड़ में गुपचुप तरीके से इसकी खेती की जाती है। इसका हर कुछ बिकाऊ होता है। पोस्ता दाना से लेकर डंठल और कण तक। एक एकड़ जमीन में करीब चालीस किलो अफीम की पैदावार होती है। स्थानीय बाजार में प्रतिकिलो चालीस हजार रुपये से लेकर 16 लाख रुपये तक इसकी कीमत लगायी जाती है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 40 लाख रुपये प्रतिकिलो तक इसकी कीमत पहुंच जाती है।
नशे के सौदागरों पर लगाम कसने की तैयारी

अफीम की खेती पर लगाम लगाने का निर्देश देतीं मुख्य सचिव राजबाला वर्मा और डीजीपी डीके पांडेय

झारखंड की मुख्य सचिव राजबाला वर्मा कहती हैं, अवैध अफीम की खेती को राज्य एवं समाज विरोधी शक्तियां झारखंड में बढ़ाना चाहती है। नशे के कारोबार से युवावर्ग एवं समाज बर्बाद हो रहा है। इसे जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए मुखियाओं से सरकार को सहयोग करने का आग्रह किया है। इस सिलसिले में छह मार्च 2017 को उन्होंने लातेहार, पलामू, खूँटी तथा चतरा जिला के मुखियाओं को विडियो कांफ्रेसिंग के जरिये अफीम की खेती के खिलाफ सरकार के सख्त रूख से रूबरू कराते हुए कहा कि अफीम की खेती में शामिल किसी भी लोगों को बख्शा नहीं जाएगा। केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार का रूख अवैध अफीम की खेती के प्रति जीरो टोलेरेंस पॉलिसी अपनाती है। मुख्य सचिव ने कहा कि अफीम की खेती के खिलाफ सरकार निर्णायक अभियान चलाकर इसे पूरी तरह समाप्त कर देगी। मुख्य सचिव ने लातेहार, चतरा, खूँटी एवं पलामू जिले के विभिन्न पंचायतों – बालू, राजवाड़, भगहा, पलरूय्या, विष्णुबांघ, तासू, सरेन्दाग, सैलया, चकला हुमारू (लातेहार)य हंटरगंज, पाण्डेयाखुर्द, चकाला, कर्मा, बोधादिन, सिकिदाग, योगीयार, हुमाखाड़ कामेकला, कोलहईया, रमी, सिलादाग, करेलीबाग, नौकाडीहा (चतराद्धय तेरला, बारूडीह, भरंगगढ़ा, भा0दाड़ा, शीलादोन, भणालोया, कोदाकेन, हेडगोवा, कुदा, पूरपूर्ती, अड़की, (खूँटी )य डुमरी, बर्सी, चाक, लाहरसी, केकड़घाट, भादन, एवं ताल (पलामू) के मुखियाओं से राज्य को अवैध अफीम की खेती से मुक्त करने के लिए सहयोग की अपील की। झारखंड के पुलिस महानिदेशक डीके पांडेय ने एनडीपीएस अधिनियम 1985 पर प्रकाश डालते हुए बताया कि नशीले पदार्थां अफीम-पोस्ता से न सिर्फ युवा-वर्ग एवं समाज को नुकसान हो रहा है, बल्कि इससे देशद्रोही- उग्रवादियों को भी आर्थिक सहायता मिलती है। झारखं डमें अफीम की खेती किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

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