संघर्ष के बाद सफलता हासिल करने के मायने बदल जाते हैं और उसका मोल भी बढ़ जाता है। कलावती कुमारी की आंखें अतीत के पन्ने को पलटते हुए डबडबा जाती हैं, लेकिन संघर्ष की वह बेमिसाल कहानी हैं और कहीं न कहीं इसी संघर्ष में कलावती ने सफलता की नयी लकीर खिंची। घरों में जूठे बर्त्तन मांजने से लेकर तीरंदाज और कोच बनने तक की कलावती के सफर पर लहरन्यूज डाट कॉम के वरीय संवाददाता तारकेश्वर प्रसाद की खास रिपोर्ट-
सिल्ली : घरों में वह जूठे बर्त्तन तो जरूर मांजती थी, लेकिन उसके हौसले और इरादे के पंख धीरे-धीरे उड़ान भरने की तैयारी कर रहे थे। सपने वह सोते हुए में नहीं, जागते हुए देखती थी। घर के हालात अच्छे नहीं थे। पसीने की हर बूंद सफलता की नयी इबारत लिखने के लिए बेचैन थी। समय बीतता गया, कलावती कुमारी के फौलादी इरादे भी मजबूत होते गये। झारखंड और सिल्ली की यह बिटिया आज की तारीख में राष्ट्रीय स्तर की तीरंदाज है और तीरंदाजी की अंतर्राष्ट्रीय दुनिया में कदम रखने के लिए दस्तक दे रही है। तीरंदाज होने के साथ-साथ बतौर कोच वह दूसरी लड़कियों को तीरंदाजी के गुर सिखा रही है। बतौर खिलाड़ी तीरंदाजी में उन्होंने कई पदक जीते हैं।
मेडल पर सटीक निशाना लगाने में माहिर
वर्ष -2016 में वह झारखंड राज्य तीरंदाजी टीम की दो बार कोच बनीं। कलावती के नेतृत्व में राज्य की टीम टाटा में आयोजित जूनियर नेशनल आर्चरी चैंपियनशिप में अव्वल रही थी। उसी वर्ष तिरुपति में आयोजित मिनी जबजूनियर आर्चरी चैंपियनशिप में भी राज्य की टीम को कुल 18 पदक दिलाने में उसकी भूमिका रही। मौजूदा वक्त में कलावती कुमारी बीए पार्ट थ्री की छात्रा है। वह रांची यूनिवर्सिटी की ओर से इंटर यूनिवर्सिटी तीरंदाजी प्रतियोगिता खेलने दक्षिण भारत के मछलीपट्नम जाने की तैयारी कर रही है।
कलावती के कोच प्रकाश राम बताते हैं- कलावती ने परिश्रम के हर मोर्चे पर अपने पसीने के बूंद गिराये हैं। पढ़ाई में भी वह खासा ध्यान दे रही है। कलावती बिरसा मुंडा तीरंदाजी केंद्र की सोनाहातु शाखा की कोच भी है और झारखंड के लिए तीरंदाज के नये पौध तैयार कर रही है।
बारह महीने की उम्र में उठ गया था माता-पिता का साया
कलावती जब महज बारह महीने की थी, तो माता-पिता का साया उसके सिर से उठ गया। वह अनाथ हो गयी। बारह महीने की बच्ची के लिए जिंदगी की पथरीली राहों पर सफर करने की शुरूआत हो चुकी थी। इतनी कम उम्र में अनाथ हो जाने के बाद उसे अपने माता-पिता का चेहरा भी याद नहीं रहा। सिल्ली लुंपुंग टोली में बेहद गरीब परिवार में जन्म लेने वाली कलावती की अनकही व्यथा की न खत्म होने वाली कहानी लिखी जा चुकी थी। लेकिन इस कहानी के हर शब्द पर कलावती के हौसले का हथौड़ा भारी पड़ता चला गया। किसी तरह उसने छठी तक की पढ़ाई की। फिर भोजन के लिए उसने दूसरे के घरों में जूठे बर्त्तन मांजने का काम शुरू किया। उसने बताया कि वह पढ़ना चाहती है। प्रशासन के सहयोग से वर्ष 2008 के नवंबर माह में सिल्ली के कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालय में नामांकन कराया गया। अब विद्यालय में उसकी पढ़ाई भी चलती रही और साथ ही सिल्ली के बिरसा मुंडा तीरंदाजी केंद्र में तीरंदाजी भी सीखने लगी। स्कूल से लेकर इंटर कॉलेज व राष्ट्रीय स्तर सहित कई प्रतियोगिताओं में उसके तीर निशाने पर लगे। अपने शानदार प्रदर्शन से उसने कई पदक जीते।