झारखंड में उच्च शिक्षा की बदहाली, जिम्मेवार कौन

• बीरेन्द्र कुमार महतो •

उच्च शिक्षा का अर्थ है सामान्य रूप से सबको दी जानेवाली शिक्षा से ऊपर किसी विशेष विषय या विषयों में विशेष, विशद तथा सूक्ष्म शिक्षा। यह शिक्षा के उस स्तर का नाम है,जो विश्वविद्यालयों, व्यावसायिक विश्वविद्यालयों, कम्युनिटी महाविद्यालयों, लिबरल आर्ट कॉलेजों एवं प्रौद्योगिकी संस्थानों आदि के द्वारा दी जाती है। प्राथमिक एवं माध्यमिक के बाद यह शिक्षा का तृतीय स्तर है जो प्रायः ऐच्छिक होता है। इसके अन्तर्गत् स्नातक, स्नातकोत्तर एवं व्यावसायिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण आदि आते हैं। वर्तमान समय में भारत के विभिन्न राज्यों में उच्च शिक्षा से संबंधित अनेक समस्याएँ उजागर हो रही हैं। इसमें झारखंड राज्य भी शामिल है।

छात्रों का पलायन, झारखंड का नुकसान

झारखंड एक आदिवासी बाहुल्य राज्य है। यहाँ आदिवासी समाज सांस्कृतिक रूप से काफी समृद्ध है। वर्ष 2000 में अलग राज्य बनने के बाद झारखंड कई क्षेत्र में विकास कर रहा है लेकिन शिक्षा खासकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में स्थिति निराशाजनक हैं।

नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन (न्यूपा, नई दिल्ली) के प्रोफेसर डॉ. सुधांशु भूषण की एक रिर्पोट के अनुसार झारखंड में 100 में (18 से 23 साल के) मात्र 13 बच्चे ही उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं। पूरे देश में यह औसत 23 है। भारत सरकार ने वर्ष 2020 तक इसे 30 करने का लक्ष्य रखा है। इसके लिए भारत सरकार को मात्र सात फीसदी आगे बढ़ना है जबकि झारखंड को 17 फीसदी। यह काफी बड़ा गैप है। इसे कम करना आसान नहीं है। यह राज्य के लिए उच्च शिक्षा की सबसे बड़ी चुनौती है। राज्य में 12 वीं कक्षा के बाद 100 में से 64 विद्यार्थी कला की पढ़ाई करते हैं। शेष 36 में 18 वाणिज्य और 18 विज्ञान के होते हैं। इस हिसाब से कॉलेजों में विद्यार्थियों की संख्या के अनुसार एक लाख विद्यार्थियों पर मात्र आठ कॉलेज हैं। इस कारण झारखंड में उच्च शिक्षा की स्थिति बेहतर नहीं कही जा सकती है।

इंटर या आईएससी के बाद यहाँ के मेधावी छात्र उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए बाहर के राज्यों में चले जाते हैं। इसका कारण यह है कि उच्चतर शिक्षा से संबंधित सरकारी शिक्षण संस्थानों की काफी कमी के कारण निजी शिक्षण संस्थानों में फीस के नाम पर एक मोटी रकम वसूली जाती है, जिसपर अंकुश लगाने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास न के बराबर हो रहे हैं। हरियाणा, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में झारखंड के ज्यादातर छात्र उच्च शिक्षा की कल्पना में पलायन करते हैं, क्योंकि इन राज्यों की सरकार शिक्षा के क्षेत्र में पूंजी निवेश करती हैं। इस वजह से नर्सिंग, बीएड, बीएचएमएस, डेंटल साइंस, माइक्रोबाइलोजी जैसे उच्चतर तकनीकी शिक्षा झारखंड की तुलना में वहां सस्ती हैं।
ऐसी स्थिति झारखंड की उच्च शिक्षा व्यवस्था को दो तरीके से हानि पहुंचाती है-पहला, उच्च शिक्षा के नाम पर झारखंड की पूँजी दूसरे राज्यों में निवेश होकर वहाँ की आर्थिक स्थिति सुधारने में मदद कर रही है तो दूसरा, हमारे राज्य की बौद्धिक संपदा एक बार पलायनवाद का शिकार होने के बाद दुबारा यहाँ वापस आने का अवसर नहीं ढूँढ़ता, जिस कारण हम अपने ही प्रखर बौद्धिक संपदा को भी सरलता से दूसरे को सौंपने के लिए बाध्य हो रहे हैं।

शिक्षकों की कमी बड़ी समस्या

झारखंड में उच्च शिक्षा की महत्वपूर्ण चुनौती यह भी है कि यहाँ स्थापित अनेक विश्वविद्यालयों की स्थापना जमीन विवादों से जुड़ी रही है। इससे शुरूआती वर्षों में उच्च शिक्षा के लिए वह धरातल नहीं बना पाया, जिसपर खड़े होकर आनेवाली पीढ़ियाँ अपने भविष्य के सुनहरे सपने गढ़ सके। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षकों की नियुक्ति इतनी कम हुई है कि दूसरे विषयों के शिक्षक किसी अन्य विषय की भी कक्षायें लेते अथवा कॉपियाँ काटते पाये जा सकते हैं। ऐसे में उच्च शिक्षा हासिल करने वाले छात्रों का भविष्य अंधकारमय ही नजर आता है। अर्थात् झारखंड में गुणवत्तपूर्ण उच्च शिक्षा की काफी कमी देखी जा सकती है।

सरकार और निजी क्षेत्र मिलकर कर करे कार्य

झारखंड में उच्च शिक्षा की स्थिति में सुधार लाने के लिए सरकार और निजी क्षेत्र को मिलकर काम करना होगा। अधिकतर संस्थानों पर शैक्षणिक कार्य अनुबंध के आधार पर हो रहे हैं। अनुबंध की जगह नियमित शिक्षकों की बहाली करनी होगी। सिर्फ सिलेबस पूरा करना उच्च शिक्षा का मकसद न होकर शिक्षा की गुणवत्ता और छात्रों के बौद्धिक विकास को बढ़ावा देने वाले सिस्टम को डेवलप करने की आवश्यकता है। राज्य में सरकारी कॉलेजों की संख्या बढ़ानी चाहिए। सरकार की कोशिश शिक्षण संस्थान से निकलनेवाले युवाओं को तुरंत रोजगार उपलब्ध कराने की होनी चाहिए। इसके लिए ऐसी नीति निर्धारित की जानी चाहिए, जिसके तहत एजुकेशन एवं इंडस्ट्री में तालमेल बैठाया जा सके।

विवि के पाठ्यक्रमों में बदलाव की जरूरत

झारखंड में उच्च शिक्षा में सुधार के लिए न सिर्फ संस्थान बढ़ाने हैं, बल्कि उसकी गुणवत्ता को भी श्रेष्ठ स्तर पर लाना आवश्यक है। यदि उच्च शिक्षा की गुणवत्ता और उसकी व्यावहारिकता पर विचार किया जाए तो वर्तमान शिक्षा प्रणाली शिक्षित बेरोजगारों की एक बहुत बड़ी संख्या प्रत्येक वर्ष तैयार करती जा रही है। इसमें बदलाव लाने के लिए आवश्यक है कि विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में व्यापक रूप से बदलाव किया जाय, ताकि यहाँ के आदिवासी एवं अन्य युवा अपने ज्ञान और कौशल के क्षेत्र में विश्वस्तरीय प्रतिस्पर्धाओं में अपने लिए स्थान बना सकें। दरअसल उच्च शिक्षा की प्रथम विसंगति पाठ्यक्रमों की अतार्किकता एवं परम्परागत संरचना है। विज्ञान विषयों को छोड़कर अन्य कला एवं वाणिज्य विषयों के पाठयक्रम समय समय पर नवीनीकृत न होने के कारण अपनी प्रासंगिकता खो देते हैं। पाठयक्रम को सैद्धान्तिक की अपेक्षा व्यावहारिक अधिक बनाया जाना चाहिए, जिससे व्याप्त नीरसता का अन्त हो एवं छात्र घर पर ही अध्ययन करने की अपेक्षा महाविद्यालयों में आकर कुछ नया सीख सके। इसके लिए कदम यह भी उठाया जाना चाहिए कि कम सरकारी सहायता पाने या नहीं पाने वाले शिक्षण संस्थानों के संचालन तथा पाठ्यक्रम चयन में स्वतन्त्रता मिले। साथ ही संस्थानों द्वारा संचालित पाठ्यक्रमों तथा शिक्षण कार्य की प्रभावशीलता की नियमित जांच हो। उच्च शिक्षा में परीक्षा प्रणाली में भी आमूलचूल परिवर्तन लाने की आवश्यकता है, जिसके अन्तर्गत वार्षिक परीक्षाओं का मूल्यांकन विश्वविद्यालयों में न होकर अन्तरराज्यीय स्तर पर होना चाहिए जिससे उच्च शिक्षा गुणवत्ता में बाधक फर्जी अंकतालिका, सिफारिश द्वारा उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन में अंकों की वृद्धि न की जा सके एवं नकल रोकने के लिए जरुरी कदम उठाये जाने चाहिए।

                       (लेखक झारखंड से प्रकाशित ‘गोतिया’ पत्रिका के संपादक हैं।)

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