रांची विवि के टीआरएल विभाग की ओर से वेबिनार: वक्ताओं ने कहा- मातृभाषा का दूसरा विकल्प नहीं हो सकता

वेबिनार में राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय वक्ताओं ने कहा- मातृभाषाओं के बगैर विकास की उम्मीद नहीं की जा सकती है। मातृभाषा के बगैर विकास की बात बेमानी होगी। बच्चों के मानसिक विकास और देश-समाज के लिए यह बेहद जरूरी है कि बच्चों को उनकी मातृभाषाओं में शिक्षा प्रदान की जाए। इस बाद पर दुख व्यक्त किया गया कि आधुनिक शिक्षा के चक्कर में हम मातृभाषाओं से दूर होते जा रहे हैं।


♦Dr BIRENDRA KUMAR MAHTO♦

  रांची: रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग की ओर से रविवार को एक दिवसीय आनलाइन अंतर्राष्ट्रीय वेबिनार का आयोजन किया गया। वेबिनार का विषय था ‘बदलते शैक्षिक परिदृश्य में मातृभाषाओं की भूमिका: संभावनाएं और चुनौतियां (झारखंड के संदर्भ में)’।
कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में यूरोपियन यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्ट एंड ईस्ट कर्न इंस्टीट्यूट ऑफ साउथ एशियाई स्टडीज, लेडन नीदरलैंड के प्रोफेसर डॉ मोहनकान्त गौतम, मुख्य वक्ता यूनिवर्सिटी ऑफ कील, जर्मनी के डॉ नेत्रा पी पौडयाल, नेपाल के भाषाविद सह वरिष्ठ साहित्यकार बेचन उराँव मौजूद थे। अध्यक्षता टीआरएल विभाग के अध्यक्ष डॉ हरि उराँव, विषय प्रवेश प्राध्यापक डॉ उमेश नन्द तिवारी, संचालन प्राध्यापक डॉ बीरेन्द्र कुमार महतो तथा धन्यवाद ज्ञापन प्राध्यापक किशोर सुरीन ने किया।

यूरोपीयन देशों में भी मातृभाषाओ की स्थिति दयनीय: प्रो. एमके गौतम
मुख्य अतिथि प्रोफेसर डॉ मोहन कान्त गौतम ने यूरोपियन देशों और भारत की भाषाओं पर चर्चा करते हुए कहा- भारत की तरह ही यूरोप में भी मातृभाषाओं की स्थिति काफी दयनीय है। उन्होंने कहा कि मातृभाषा के महत्व को जाने बगैर विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। छात्रों को मातृभाषा में शिक्षा देने के लिए संबंधित भाषा के शिक्षकों को बाहर जाकर दूसरी भाषाओं से भी सीखना चाहिये। उन्होंने भाषाओं के मानकीकरण व व्याकरणिक पहलुओं पर चर्चा करते हुये कहा कि भाषाओं के विकास के लिये नये सिद्धांत और कांसेप्ट बनाये जाने की जरूरत है। उन्होंने झारखंड के अलग-अलग भाषाओं के शब्दों को लेकर एक भाषा का निर्माण करने की बात कही। उन्होंने कहा कि वर्षों से चली आ रही पुरानी व्यवस्थाओं में बदलाव लानी होगी।
मातृभाषाएं बच्चों को आत्मविश्वास से भर देती हैं: डाॅ पौडयाल
मुख्य वक्ता यूनिवर्सिटी ऑफ कील, जर्मनी के भाषावैज्ञानिक डॉ नेत्रा पी. पौडयाल ने झारखंड की जनजातीय और क्षेत्रीय भाषाओं पर काफी सूक्ष्मता से प्रकाश डालते हुये कहा कि झारखंड में बहुत सारे डायलेक्ट हैं। उन डायलेक्ट को पता करना जरूरी है। मातृभाषाएं बच्चों को आत्मविश्वास से भर देती हैं। स्कूलों में बच्चों के ड्रापआउट को रोकने के लिये मातृभाषा काफी कारगर है। यह बच्चों के बौद्धिक विकास के साथ-साथ क्षमता का भी विकास करता है। उन्होंने झारखंड की भाषाओं की महत्ता को रेखांकित करते हुये कहा कि यहाँ की भाषाओं में व्याकरणिक भिन्नता है। उन भिन्नताओं को दूर करना होगा। साथ ही मातृभाषा को पहले महत्व देना होगा उसके बाद अन्तर्राष्ट्रीय भाषा को। बच्चों के साथ उनके अभिभावकों को भी मातृभाषा के प्रति रुचि पैदा करना होगा।
मातृभाषा को दें महत्व: बेचन उरांव
नेपाल के भाषाविद और वरिष्ठ साहित्यकार बेचन उराँव ने कहा – आदिवासी समुदाय में मातृभाषा की अपनी महत्ता है। परन्तु वर्तमान में बच्चों को आधुनिक शिक्षा के चक्कर में हम अपनी मातृभाषा को तरजीह नहीं देकर अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं की ओर भेज देते हैं। हम अपने बच्चों को मातृभाषा के प्रति मानसिक रूप से तैयार नहीं कर पाते हैं। उन्होंने मातृभाषाओं के महत्व को रेखांकित करते हुये कहा कि बच्चों के लिये उनके पाठ्य पुस्तकों को उनकी ही मातृभाषाओं में होना चाहिये, तभी हमारा सर्वांगीण विकास संभव हो पायेगा।

 

झारखंड में एकसाथ कई भाषाओं की दी जाती है शिक्षा: डाॅ हरि उरांव
अध्यक्षता करते हुये विभागाध्यक्ष डॉ हरि उराँव ने कहा कि झारखंड ही एक ऐसा प्रांत है जहाँ एकसाथ कई भाषाओं में शिक्षा दी जा रही है। उन्होंने कहा कि अपनी मातृभाषाओं के विकास के लिये हमें विभिन्न विधाओं में सामग्री का निर्माण करना होगा.
इस आनलाईन एकदिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय वेबिनार में जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के अलावा देश व विदेश के प्राध्यापक, शोधार्थी, भाषाविद एवं छात्र-छात्राएं मौजूद थे।

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