मातृभाषा दिवस 21 फरवरी पर विशेष  ः इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल

● अगले 50 सालो में ख़त्म हो जाएंगी झारखंड की 8 आदिवासी व सदानी भाषाएं 


 ♦डॉ.बीरेन्द्र कुमार महतो ♦
असिस्टेंट प्रोफेसर
यूनिवर्सिटी डिपार्टमेंट ऑफ टीआरएल
रांची विश्वविद्यालय, रांची, झारखंड

लम्बे संघर्ष के पश्चात झारखंड राज्य तो अस्तित्व में आ गया, लेकिन इस संघर्ष में जिन भाषा और संस्कृति को आधार बनाकर संघर्ष किया गया, वही भाषा-संस्कृति  आज अपना वजूद, अपना अस्तित्व बचाने के जद्दोजहद में हैं। हमारी पहचान देने वाली मातृ भाषाएं बाह्य संसर्ग और विकास की आंधी में गुम होती जा रही है। साथ ही शहरी इलाकों में बसी आदिवासी व सदानी आबादी अपनी भाषा का उपयोग बोलचाल में नहीं के बराबर करती हैं, इसलिए इन भाषाओं की हालात बहुत ही चिंताजनक है। 
झारखंड के आदिवासी और सदानी भाषाओं की जो परिस्थिति पूर्व में थी कमोवेश आज भी वही स्थिति बनी हुयी है। राज्य गठन के अठारह वर्ष गुजर जाने के पश्चात भी झारखंडी भाषाओं के प्रति सरकार का नजरिया अभी तक पूरी तरह से नहीं बदला है। इस ओर सरकार का रवैया भी काफी उपेक्षापूर्ण रहा है। यदि ईसाई मिशनरियों द्वारा झारखंड की भाषाओं के प्रति लगाव नहीं रहता, तो यहाँ की भाषाएं कब के विलुप्त हो चुकी होतीं। मुंडारी भाषा के लिए होपमैन ने इनसाइक्लोपीडिया, कुड़ूख भाषा के लिए बडियन हॉन ने कुड़ूख ग्रामर लिखा उसी प्रकार नागपुरी भाषा के लिये जे. एच. ह्विटली ने ‘नोट्स अॉन दी गंवारी डायलेक्ट’, फा. कोनार्ड बुकाउट ने ‘ग्रामर अॉफ दी नागपुरिया सदानी लैंग्वेज’, फा. पीटर शांति नवरंगी ने ‘नागपुरिया सदानी बोली का व्याकरण’ लिखा। इनके अलावा जर्मनी की भाषा-वैज्ञानिक डॉ. मोनिका जार्डन ने भी नागपुरी भाषा में शोध कर चुकी हैं। वर्तमान में जर्मनी के कील स्थित क्रिश्चीयन अल्ब्रेच्टस यूनिवर्सिटी में लिंग्वेस्टिक विभाग के प्रोफेसर और अध्यक्ष डॉ जॉन पीटरसन ने विगत दस वर्षो से झारखंड की भाषाओं पर शोधरत हैं। वे खड़िया भाषा में दो शब्दकोश लिख चुके हैं और वर्तमान में नागपुरी भाषा के लिये शब्दकोश तैयार कर रहे हैं। इसी विश्वविद्यालय के भाषा वैज्ञानिक डॉ. नेत्रा पी. पौडयाल भी झारखंड की विभिन्न भाषाओं पर शोध करते रहे हैं। वर्तमान में डॉ. पौडयाल खोरठा और कुरमाली भाषाओं पर शोधरत हैं।


झारखंडी भाषाओं का मौखिक साहित्य लिखित साहित्य से काफी समृद्ध है, जरूरत है इसके लिखित साहित्य को समृद्ध कर इसे बढ़ावा देने की, तभी यहाँ की आदिवासी व सदानी भाषाओं का विकास हो सकेगा। दूसरी तरफ शहरी क्षेत्रों में प्रवास कर रहे अधिकांस आदिवासी-सदान समाज के लोगों में अपनी भाषा बोलने वाले अब या तो बुढ़े हैं या जवान, बाजार के अनुकूल नहीं होने के कारण बच्चोँ में इन भाषाओं के प्रति कोई रुचि नहीं दिखाई देती। वहीं झारखंडी भाषाओं में सामुदायिक व व्यक्तिगत स्तर पर कई पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया जाता रहा है, परन्तु आर्थिक समस्या के चलते कई तो बंद हो चुके और जो बचे हैं उनकी भी स्थिति दयनीय है। जानकर आश्चर्य होगा कि जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग शायद देश का पहला ऐसा विभाग है जहाँ एक साथ झारखंड प्रदेश की नौ जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं की पढ़ाई शुरू की गयी थी। परन्तु सरकारी उदासीनता के कारण यह विभाग काफी पिछड़ा हुआ है।


झारखंड  के आदिवासियों व सदानों में द्रविड़, आस्ट्रिक और आर्य भाषा परिवार से संबद्ध भाषाओं का बोलबाला है। उराँव जनजाति की भाषा कुड़ुख व सौरिया पहाडिया जनजाति की भाषा मालतो द्रविड़ परिवार की भाषा है जबकि मुंडारी, संताली, हो और खड़िया आस्ट्रिक भाषा परिवार से तथा नागपुरी, खोरठा, कुरमाली और पंचपरगनिया आर्य भाषा परिवार से संबद्ध हैं। इस परिवार की कई भाषाएं वैज्ञानिक, तकनीकी शब्दावली के अभाव में बाजार की माँग के अनुरूप खरी नहीं उतर पा रहीं, जिसके परिणाम स्वरूप उन भाषाओं का विलुप्त होने का खतरा बढ़ गया है।
झारखंड की 8 भाषाएं यथा कुड़ुख, मुंडारी, हो, खड़िया, असुरी, भूमिज, बिरहोरी, मलतो आदि लगभग विलुप्त होने के कगार पर हैं। झारखंड के साथ साथ असम की 55, मेघालय की 31, मणिपुर की 28, नगालैंड की 17 और त्रिपुरा की 10 भाषाओं पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा हैं।
– संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा जारी किए गए आंकड़े के अनुसार विश्व में199 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या एक दर्जन से भी कम है।
– कैरेम भाषा जिसे उक्रेन में मात्र 6 लोग बोलते हैं।
– ओकलाहामा में विचिता भाषा मात्र10 लोग ही बोलते हैं।
– इंडोनेशिया में लेंगिलू भाषा बोलने वाले मात्र 4 लोग ही बचे हैं।
– 178 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वाले लोगों की संख्या150 से कम है।

आज स्थिति यह है कि संसार में प्रचलित करीब 6000 भाषाओं में से एक-चौथाई को बोलने वाले सिर्फ एक ही हजार लोग बचे हैं। इनमें से भी सिर्फ 600 भाषाएं ही फिलहाल सुरक्षित होने की श्रेणी में आती हैं। किसी नई भाषा के जन्म लेने का कोई उदाहरण भी हमारे सामने नहीं है। दुनिया भर में इस वक्त चीनी, अंगरेजी, स्पेनिश, बांग्ला, हिंदी, पुर्तगाली, रूसी और जापानी कुल आठ भाषाओं का राज है। दो अरब 40 करोड़ लोग ये भाषाएं बोलते हैं।
बहरहाल यहाँ की 32 जनजातीय समुदायों की 32 भाषाओं में से 27 विलुप्त हो चुकी हैं और पांच जनजातीय भाषाओं को केंद्रीय भाषा संस्थान मैसूर ने देश के बारह संक्रमण काल से गुजर रही भाषाओं की सूची में डाल खतरे का संकेत दे चुकी है। भाषाविदों और भाषा शास्त्रियों  ने साफ तौर पर सतर्क करते हुये कह दिया है कि यदि साकारात्मक प्रयास नहीं हुए तो आने वाले सौ वर्ष में वर्तमान में तकरीबन 15 लाख लोगों के द्वारा बोली जाने वाली कुड़ुख भाषा भी विलुप्त हो जाएगी। संयुक्त राष्ट्र संघ की सांस्कृतिक परिषद की रिपोर्ट के अनुसार इस सदी में दुनिया के सात हजार भाषाओं में से 63 सौ भाषाएं मर जाएंगी।

27 साल में लुप्त हुई भाषाएं
• ऑस्ट्रेलिया के जनजातीय समूह में बोली जाने वाली दो भाषाएं ‘यावुरू’ और ‘मगाटा’ को बोलने वाले केवल तीन लोग बचे हैं। इसी तरह भाषा अमुरदाग है, जिसे बोलने वाला केवल एक व्यक्ति ज़िन्दा है।
• बो – यह ग्रेट अंडमानी भाषा इसी साल लुप्त हुई, जब इसे बोलने वाली एकमात्र महिला बोआ सीनियर की मौत हुई। यह भाषा उत्तरी अंडमान के पश्चिमी किनारे पर बोली जाती थी। यह भाषा लिपिहीन थी इसलिए इसके सम्बंध में अब कोई जानकारी नहीं है।
• इयाक – यह 21 जनवरी 2008 को लुप्त हुई। इसे बोलने वाले आखरी व्यक्ति थे स्मिथ जोन्स। इयाक एक सदी पहले अलास्का के प्रशांत महासागरीय तटीय क्षेत्रों में काफी प्रचलित थी।
• अकाला सामी – यह रूस के कोला पेनेसुएला में बोली जाती थी। इसे बोलने वाले आखरी व्यक्ति मार्जा सर्जीना थे जिनकी मौत 29 दिसंबर 2003 को हुई। इसका लिखित ज्ञान इतना कम है कि इसे पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता।
• गागुडजू – इसकी मौत 23 मई 2002 को इसे बोलने वाले आखरी व्यक्ति बिग बिल निएट्जी के साथ हुई। यह कभी उत्तरी ऑस्ट्रेलिया में बोली जाती थी। इस भाषा को काकाडू या गागाडू के नाम से भी जाना जाता है।
• उबयेख – यह कभी तुर्की के कॉकेशियन प्रांत में बड़े पैमाने पर बोली जाती थी। यह क्षेत्र काला सागर के इलाके में पड़ता है। उबयेख के अंतिम जानकार का नाम अज्ञात है, लेकिन माना जाता है कि उनकी मृत्यु 1992 में हुई थी।
• मुनिची – यह कभी पे डिग्री के यूरीमागुआस प्रांत के मुनिचीस गांव में बोली जाती थी। इस भाषा के अंतिम जानकार हुऐनचो इकाहुएटे थे जिनकी मौत सन 1990 में हुई थी।
• कामास – इसे कामाशियन के नाम से भी जाना जाता है। यह रूस के यूराल पर्वतमाला क्षेत्र में बोली जाती थी। आखरी बोलने वाले कलावाडिया पोल्तोनिकोवा थे जिनकी मौत सन 1989 में हो गर्ई। भाषा का व्याकरण अभी भी उपलब्ध है।
• मियामी इलिनाइस – यह देशज अमेरिकन भाषा थी। 1989 में हुए अध्ययन के बाद पाया गया कि इसे बोलने वाला कोई नहीं बचा है। लुप्त होने से महज 25 साल पहले तक अमेरिका के इलिनॉय, इंडियाना, मिशिगन, ओहायो जैसे प्रांतों में इसे बोलने वाले कुछ लोग थे।
• नेगरहॉलैंड्स क्रिओल – यह 1987 में लुप्त हुई। आखरी व्यक्ति जो इस भाषा की जानकार थी वे थी श्रीमती एलिक स्टीवेंसन। यह भाषा अमेरिका के वर्जिन आइलैंड में बोली जाती थी।

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