मजदूर दिवस पर विशेष : शहरी क्षेत्रों में दिव्यांग श्रमिकों से जुड़ी चुनौतियां

♦बीरेन्द्र कुमार महतो♦
संपादक, ‘गोतिया’

आर्थिक उदारीकरण के बाद वैश्विक स्तर पर मजदूरों को मिलनेवाले कामों में बढ़ोतरी हुई है। सीमा पार से बड़े पैमाने पर पूँजी, औद्योगिक तकनीक व सूचनाओं का आगमन संभव हो पाया है। उदारीकरण से पहले विकासशील देशों के मजदूर तय सीमा से ज्यादा देर तक काम करके भी औसत उत्पादन ही कर पाते थे। उदारीकरण के बाद नये-नये तकनीक आये, जिससे उद्योगों के साथ मजदूरों की उत्पादन क्षमता भी बढ़ी। इससे उद्योग और मजदूर दोनों को लाभ मिला। लाभ के दृष्टिकोण से एक नई बात उभरकर सामने आई कि शहरी क्षेत्रों में दिव्यांगग्रस्त श्रमिकों की उपस्थिति में वृद्धि दर्ज की गई।

राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार भारत में वर्तमान समय में कुल आबादी की 1.9 प्रतिशत आबादी दृष्टि, श्रवण, वाणी तथा चलने-फिरने से संबंधित दिव्यांगता से ग्रस्त है। यदि झारखंड के परिदृश्य में बातें करें तो संगठित और असंगठित दोनों ही क्षेत्रों में दिव्यांगग्रस्त श्रम की उपस्थिति में वर्तमान समय में बढ़ोतरी देखी जा सकती है, हालांकि राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन के अनुसार शहरी क्षेत्र में नियमित रूप से सिर्फ 7.6 प्रतिशत विकलांगों को ही रोजगार प्राप्त है। नियोक्ताओं द्वारा आमतौर पर यह दलील दी जाती है कि जब योग्य आदमी आसानी से नौकरी के लिए उपलब्ध हैं तो दिव्यांगों को क्यों नौकरी दी जाए ? लिहाजा असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत दिव्यांग श्रमिकों की स्थिति अत्यधिक दयनीय है। झारखंड के शहरी क्षेत्र में दिव्यांगों के चलने-फिरने से उनके रोजगार का घनिष्ठ संबंध है। दिव्यांगों की आबादी एवं मोटर वाहनों में तीव्र वृद्धि के मद्देनजर असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की सबसे बड़ी चुनौती कार्यस्थल से दूर आवास का होना है। सार्वजनिक क्षेत्रों में सुगम पहुँच के अतिरिक्त कार्यस्थलों के प्रवेश द्वारों, सीढ़ी, लिफ्ट, शौचालयों, रेल/बस टिकटघरों की खिड़कियों, पार्किंग स्थलों में दिव्यांग लोगों के आवागमन की समस्या एक प्रमुख समस्या है।

दिव्यांग पुरूषों की तुलना में दिव्यांग महिलाओं की स्थिति और भी अधिक दयनीय है। यदि ऐसे श्रमिक अपने मेहनत और लगन की वजह से टिके रहने की कोशिश करते हैं तो उन्हें मानसिक यंत्रणा देकर कार्य छोड़ने को मजबूर किया जाता है। दिव्यांग व्यक्तियों को समान अवसर, अधिकार संरक्षण तथा पूर्ण भागीदारी दिलाने के उद्देश्य से बने दिव्यांग जन अधिनियम 1995 में शिक्षा, रोजगार, प्रशिक्षण, आरक्षण, अनुसंधान, जनशक्ति विकास, अवरोधमुक्त वातावरण, पुनर्वास, बेरोजगार भत्ता, विशेष बीमा योजना, गृहस्थापना आदि विभिन्न प्रावधान दिव्यांग व्यक्तियों के कल्याणार्थ किए गए हैं


परंतु मूलभूत प्रश्न यह है कि ढेर सारे अधिनियमों एवं मार्गदर्शन के बावजूद भी हम असंगठित क्षेत्र में कार्यरत दिव्यांगग्रस्तों से मुंह फेरकर क्यों खड़े रहते हैं ? क्या यह कार्यकुशलता एवं तकनीकी कमी के कारण हैं अथवा हमारे उदासीन रवैये का परिणाम हैं ?
बढ़ते असंगठित क्षेत्र के वर्तमान रोजगार पद्धति में दिव्यांगग्रस्त व्यक्तियों के लिए आवश्यक सुविधाओं को न सिर्फ नजरअंदाज किया जा रहा है बल्कि उनके साथ उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण भी अपनाया जा रहा है।
दिव्यांग लोगों की आवश्यकताएं सामान्य लोगों की आवश्यकताओं से भिन्न होती हैं। अतएव उनके सम्यक विकास के लिए विशेष प्रावधानों की आवश्यकता होती है। रोजगार से संबंधित चुनौतियों को दूर करने के लिए कोई भी निर्णय लेने के पूर्व उनकी जनसंख्या के अनुपात में विद्यमान सुविधाओं तथा विशिष्ट आवश्यकताओं का आकलन कर लेना आवश्यक है। किसी दुकान में सामान तौलने का काम करना, किसी मॉल में कंप्यूटर पर काम करना, सॉफ्ट टॉय बनाना, साबुन बनाना, अगरबत्ती बनाना, सूत काटना, कपड़ों पर फुलकारी बनाना, सब्जी का ठेला लगाना, जूस का दुकान चलाना इत्यादि अनेकों असंगठित क्षेत्र के कार्यों में दिव्यांगताओं की बढ़ती हिस्सेदारी कमतर नहीं आंकी जा सकती है।

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