‘उर्दू शेरो अदब का उभरता एक छोटा मरकज……रांची’

•एमजेड खान •

अतीत में दिल्ली,लखनऊ,अजीमाबाद,दक्कन और पंजाब उर्दू अदब के पांच बड़े दबिस्तानों में शुमार किये जाते थे। अब ये मरकज बिखर गए हैं और छोटे छोटे शहरों को उर्दू अदब के मरकज की शक्ल में पहचान मिल रही है। इनमें रांची भी एक है जहां अदब की तख्लीक(सृजन)हो रही है,अदबी माहौल साजी की फिजा तैयार हो रही है जिसके सबब सामाजिक सौहार्द के रिश्ते भी मजबूत हो रहे हैं और अदब ही वो माध्यम है जो दूषित वातावरण की गंदगी को दूर कर सकता है.घृणा,द्वेष को मोहब्बत के गीतों से खत्म कर सकता हैं। हिन्दुस्तान के अदबी मंजरनामे पर रांची की कभी कोई खास पहचान नहीं रही,पर यहां के शायरों,अदीबों,अफसाना निगारों और नाकीदों ने मुल्क के अदबी मंजरनामे पर उपस्थिति दर्ज कराकर अपनी पहचान बनानी शुरू कर दी है।

उर्दू शायरी के तिकोन

झारखंड के उर्दू शायरी के तिकोन(त्रिकोण)कहे जाने वाले प्रकाश फिक्री,वहाब दानिश और सिद्दीक मुजीबी ने अपनी फिक्रअंगेज शायरी से झारखंड के उर्दू अदब को एक विशिष्ट पहचान दिलाई है। जदीद उर्दू गजल में फिक्री और मुजीबी का नाम नुमायाँ तौर पर देश के समकालीन उर्दू गजलगो शायरों में रखा जा सकता है।

संजीदा शायरी से पहचान बनायी

इसके अलावा झारखंड विशेषकर रांची के उर्दू अदब में अपनी संजीदा शायरी से पहचान बनाने वालों में डॉ अख्तर यूसुफ, अज्म हैदरी, अजफर जमील,सरवर उस्मानी,अता कुरैशी,डॉ मसूद जामी,जालिब वत्नी,एसएम अब्बास,परवेज रहमानी,हैरत फरुखाबादी,मुजीबुर्रहमान बज्मी,कासिर अजीम,सैयद गुफरान अशरफी और कुछ सालों से रांची में रह रहे शौक जालंधरी वगैरह का नाम काबिले जिक्र है। बुजुर्ग और पुराने शायरों में तौहीद रांचवी,असर रांचवी,गनी रांचवी,नजर रांचवी,शाहिद जमाल,पीडी खन्ना,समीउल्लाहश्शफकश् वगैरह का नाम उर्दू अदब में एहतराम से लिया जाता है।
नई नस्लों में सरवर साजिद,सुहैल सईद,रेहाना मो अली,आलमगीर साहिल,जेड अनवर,ओजैर हमजापुरी,अंजुम रहबर,कमर गयावी,मो शाकिर,नसीर अफसर,हारून खुमार,अख्तर रांचवी ,नजमा नाहिद वगैरह का नाम भी काबिले जिक्र है। देवेन्द्र गौतम,उमाशंकर वर्मा और ओपी बर्णवाल जैसे गैरु उर्दूदां भी उर्दू गजल की परम्परा को समृद्ध कर रहे हैं।
’अफसाना निगारी’उर्दू अदब की इस विधा में डॉ शीन अख्तर , डॉ अख्तर यूसुफ,शीरीं नेयाजी,सुबूही तारिक,डॉ कहकशां परवीन,महमुदा अख्तर,मलीह बदर(राकिम)और अफसांचा निगारी के लिए डॉ एमए हक वगैरह का नाम काबिले जिक्र है। ये मैदान बड़ा ही जरखेज है लेकिन अबतक कोई शाहकार कहानी मंजरेआम पर नहीं आई है जिससे अदब की दुनिया में रांची को पहचान मिले।

बेशकीमती दस साल दिए

‘तंकीद(आलोचना)’अदब का ये मैदान भी ख़ाली नहीं है। मुल्क के नामवर नाकिद डॉ वहाब अशरफी ने इस शहर को अपने बेशकीमती दस साल दिए हैं। अपने रांची प्रवास के दौरान इन्होंने”तारीखे अदब-ए-उर्दू”जैसी मशहूर तंकीदी किताब लिख कर झारखंड को पहचान दिलाई है।इसके लिए इन्हें 2008 में साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया जो यहां के उर्दू अदब के लिए फ़ख्र की बात है। इसके अलावा डॉ शीन अख़्तर ने भी तहक़ीक़ ओ तनक़ीद की कई किताबें लिखकर झारखंड के उर्दू अदब को समृद्ध किया.तंकीद ओ तहकीक के दो बड़े नामों में डॉ अबूजर उस्मानी और डॉ अहमद सज्जाद हैं, जिनके तजकिरे के बगैर झारखंड का तंकीदी अदब नमुकम्मल है। तंकीद के मैदान में कुछ ऐसे नाम भी सरगर्म हैं, जो यहां के तंकीदी अदब को समृद्ध कर रहे हैं। इनमे काबिले जिक्र हैं…..डॉ जमशेद कमर,डॉ कय्यूम अब्दाली,डॉ मंजर हुसैन,डॉ हसन मोसन्ना और डॉ आगा जफर वगैरह..!

‘अदबी और सकाफती सरगर्मियां’ 70 के दशक में एजी एवं मेकॉन के मुशायरों ने रांची की एक विशिष्ट पहचान बनाई थी। यहां के मुशायरों में शिरकत करना ही शायरों के लिए गौरव की बात थी। कुछ शायरों को तो यहां के मुशायरों से नामवरी(शोहरत)मिली। 1990 के बाद मुशायरे का ये सिलसिला टूट गया। एजी और मेकॉन की सांस्कृतिक गतिविधियाँ थम सी गयीं। शहर में सांस्कृतिक सन्नाटा छा गया, क्योंकि बाजारवादी संस्कृति ने इसे भी अपनी चपेट मे ले लिया है। बाजार इस पर भी हावी हो चुका है।


सांस्कृतिक सन्नाटे को तोड़ने के लिए शहर की कुछ अदबी तंजीमें सरगर्म दिखाई देती हैं। खुसूसी तौर पर जनवादी लेखक संघ,प्रगतिशील लेखक संघ,जन संस्कृति मंच,साहित्य विचार मंच और उर्दू की एक दो अदबी तनजीमें शामिल हैं। जलेस निरंतरता से साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन करता रहा है।.ज्वलन्त सामाजिक मुद्दों पर भी हस्तक्षेप करता है। उर्दू की अदबी तंजीमें बहुत सक्रिय और सरगर्म नहीं हैं। बजमे अदब और महफिले अदब जैसी तंजीमें कभी कभार छोटी-मोटी नशिस्ते कर लेती हैं। बकाए अदब ने चार साल कबल ऑल इंडिया मुशायरा कराया था। उसके बाद से ये तंजीम खामोश है।

अदबी माहौल की कमी खलती है

महफिले अदब ने 2015 मे सिद्दीक मुजीबी की याद में ऑल इंडिया मुशायरा कराया था। गुलिस्तान-ए-अदब भी कभी कभार नशिस्ते कर इस सन्नाटे को तोड़ने का काम करता है। बज्मे राही ने इधर कुछ महीनों से सक्रियता दिखाई है.दिसम्बर 2016 में रांची में इस तंजीम ने ऑल इंडिया मुशायरा का सफल आयोजन कर सांस्कृतिक सन्नाटे को तोड़ने का काम किया है और धनबाद के कतरास में चार मार्च को दूसरा ऑल इंडिया मुशायरा कर इस तंजीम ने झारखंड में अदबी सरगर्मियों को तेज किया है। इरबा में भी रज्जाक अंसारी की स्मृति में निजी तौर पर मार्च की 18 तारीख को ऑल इंडिया मुशायरा का आयोजन किया गया। रांची में हालिया कुछ महीनों से अदबी सरगर्मियां तेज हुई हैं जो इस बात का संकेत है कि आने वाले दिनों मे रांची एक अदबी मरकज की तरह उभर कर सामने आएगा। हालांकि रांची में अदबी माहौल की कमी खलती है। न यहां कोई कल्चर सेंटर है और न कैफे हाउस जैसी कोई स्थाई जगह जहां कुछ लोग बैठकर साहित्य पर विमर्श कर सकें।

झारखंड की उर्दू पत्रिकाएं

झारखंड से उर्दू की एक दर्जन पत्रिकाएं निकलती हैं। रांची से त्रैमासिक अहदनामा,मौजे अदब,उम्मीदे सेहर,अनवारे तख्लीक,जहाने आजाद,हमलोग,धनबाद से रंग,शहपर ,हजारीबाग से उफुक-ए-अदब और जमशेदपुर से तहकीक आदि तवातिर से निकल रहे हैं और उर्दू अदब की दुनिया में अपनी पहचान बनाने मे कामयाब हो रहे हैं। एक तल्ख सच्चाई ये भी है कि नई नस्ल जबान ओ अदब से दूर होती जा रही है। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने नई नस्ल को अदब से दूर कर दिया है.

2 thoughts on “‘उर्दू शेरो अदब का उभरता एक छोटा मरकज……रांची’”

  1. तनक़ीद के दस साल के तहत डॉ वहाब अशरफी का तज़किरा छूट गया है
    लहर झारखण्ड के लिए एक अच्छी कोशिश है
    मुझे लगता है इसके माध्यम से आप यहां की संस्कृति को दूर तक ले जाने में सफल होंगे.मेरी नेक तमन्नाएँ आपके साथ है….एमज़ेड खान

  2. तरतीब बहुत आकर्षक नहीं है .इसपर ध्यान देने के ज़रूरत है.सब हेड लाइन को बोल्ड किया जाना चाहिए
    कुछ शब्द बिखरे बिखरे से हैं.कुछ जगह प्रूफ की गलतियां हैं ,इनपर खास ध्यान देने की ज़रूरत है.

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